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अबूझमाड़ की समृद्ध आदिम संस्कृति और सामाजिक परंपराएँ आज भी है जीवंत

ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से कौड़ी (माटी) त्योहार मनाया

बस्तर संभाग मेंअबूझमाड़ की समृद्ध आदिम संस्कृति और सामाजिक परंपराएँ आज भी जीवंत हैं। आधुनिकता के इस दौर में भी यहां की पारंपरिक रीति-रिवाजोंl को पूरी निष्ठा के साथ निभाया जाता है। इसका एक उदाहरण हाल ही में कस्तूरमेटा और होकपाड गांव में देखने को मिला, जहां ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से कौड़ी (माटी) त्योहार का आयोजन किया।इस अवसर पर ग्रामीणों ने देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना कर उन्हें भोग अर्पित किया और जंगल से वनोपज काटने की अनुमति मांगी। परंपरा के अनुसार, अबूझमाड़ के ग्रामीण हर वर्ष इस त्योहार को मनाने के बाद ही जंगल से वनोपज एकत्र करना शुरू करते हैं।अबूझमाड़ क्षेत्र वनोपज के लिए प्रसिद्ध है, और यही उनके जीवनयापन का मुय साधन भी है। अबूझमाड़ के ग्रामीणों की यह परंपरा प्रकृति के प्रति उनकी आस्था और सामुदायिक सहयोग की भावना को दर्शाती है। इस अनूठे पर्व के माध्यम से वे अपनी संस्कृति और जीवनशैली को सहेजते हुए पर्यावरण संरक्षण की मिसाल भी पेश करते हैं।कौड़ी त्योहार का आयोजन माघ माह की शुरुआत में किया जाता है और यह दो दिन तक चलता है। पहले दिन ग्रामीण गायता और देवी-देवताओं को न्योता देते हैं। दूसरे दिन देवी पांडलिया और देवता मुंदीकुंवर की पूजा की जाती है। गायता विधिवत रूप से पूजा-अर्चना कर देवी-देवताओं से जंगल में मिलने वाले वनोपज को काटने और एकत्र करने की अनुमति मांगते हैं।पूजा के बाद देवी-देवताओं को भोग अर्पित किया जाता है। इसके पश्चात ग्रामीण सामूहिक रूप से भोजन तैयार करते हैं, जिसमें शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं। परंपरा के अनुसार, पुरुष और महिलाएँ अलग-अलग स्थानों पर भोजन बनाते और ग्रहण करते हैं। भोजन की व्यवस्था के लिए प्रत्येक परिवार चावल, दाल और नगद सहयोग प्रदान करता है।यह त्योहार न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि सामूहिक एकता और जंगल से जुड़ी आजीविका का भी महत्वपूर्ण हिस्सा है। कौड़ी त्योहार के संपन्न होने के बाद ग्रामीण पैदा (वनस्पति), फुलझाड़ू, कदर, छिंद और अन्य वनोपज एकत्र करना शुरू करते हैं। इन वनोपजों को बेचकर ग्रामीण अपनी आजीविका चलाते हैं।

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